संदेश

अक्तूबर, 2009 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

अकेला हूँ...अकेला ही रहने दो

अकेलापन भी खुब अपनापन लिए रहता है.. इसमें इंसान स्वयं से बाते करता है और अपने व्यक्तित्व के विभिन्न् रंगो से रुबरु होता है। बात खुब ज्यादा आध्यात्मिक नहीं है बस सोचने भर की बात है। अकेलेपन काटने को दौडता है यह बात सच है परंतु कुछ समय बाद । व्यक्ति जब अकेला होता है तब पहले उसे खुब खुशी होती है। अकेला रहुँगा मन की करुंगा और वह करता भी है। बाकी बाते छोड़े तब अकेले व्यक्ति के स्वयं से संवाद का जो समय होता है वह काफी महत्वपूर्ण होता है। उस समय मन तरह तरह की बाते करता है और न जाने कितने रंग बदलता है। इंसान को स्वयं के भीतर के खलनायक से लेकर नायक से परिचय हो जाता है। ऐसे में अधिकांश व्यक्ति स्वयं के आसपास ही विचारों को बुनता है जिसमें स्वयं की सफलता, असफलता, इच्छाओं और आकांक्षाओं से लेकर प्रेम,दुश्मनी,प्रतिस्पर्धा आदि शामिल होते है। स्वयं से बातचीत करने का सिलसिला इस बात पर निर्भर करता है कि इंसान चाहता क्या है? अगर व अतिमहत्वकांक्षी होगा तो निश्चित रुप से पैसा कही न कही उसके विचारो में आएगा ही परंतु इंसान सही मायने में आत्मविश्लेषण करना चाहे या स्वयं की कोई समस्या से निजात पाना चाहता है तो अक

आज भी खरीदना पड़ता है मानव रक्त!

सभ्यता के विकास की दौड़ में मनुष्य भले ही कितना आगे निकल जाए, पर जरुरत पड़ने पर आज भी एक मनुष्य दूसरे को रक्तदान करने में हिचकिचाता है। रक्तदान के प्रति जागरुकता लाने की तमाम कोशिशों के बावजूद मनुष्य को मनुष्य का खून खरीदना ही पड़ता है। इसे बड़ी विडंबना ओर क्या हो सकती है कि कई दुर्घटनाओं में रक्त की समय पर आपूर्ति न होने के कारण लोग असमय मौत के मुँह में चले जातेे है। रक्तदान के प्रति जागरुकता जिस स्तर पर लाई जाना चाहिए थी, उस स्तर पर न तो काशिर्श हुई है और न लोग जागरुक हुए। भारत की बात की जाए तो अब तक देश में एक भी केंद्रीयकृत रक्त बैंक की स्थापना नहीं हुई जिसके माध्यम से पूर्रे देश में कही पर भी खून की जरूरत को पूर्रा किया जा सके। टेक्नोलॉजी में हुए विकास के बाद निजी तौर पर वेबसाइट्स के माध्यम से ब्लड बैंक व स्वैच्छिक रक्तदाताओं की सूची को बनाने का कार्य आरंभ हुआ। इसमें थोड़ी बहुत सफलता भी मिली, लेकिन संतोषजनक हालात अभी नहीं बने। मात्र एक प्रतिशत रक्तदाता विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा हर साल 14 जून को 'रक्तदान दिवस" मनाया जाता है। वर्ष 1997 में संगठन ने यह लक्ष्य रखा

दिल बोले मनी मनी...

पैसा किसे नहीं अच्छा लगता और आज के इस भौतिक युग में पैसे के बिना कुछ भी नहीं चलता। सबसे बड़ा रुपैय्या ही होता है यह आजकल युवा पीढ़ी से लेकर प्रत्येक व्यक्ति जानता है। पैसा जरुरत है, पैसा बिना कुछ नहीं हो सकता और अगर पैसा है तो सबकुछ हो सकता है। जमीन जायदाद तो ठीक पैसा हो तो भगवान के मंदिर में भी जल्दी नम्बर लग जाता है। पैसो से सुख, प्यार, संबंध, खरीदे नहीं जा सकते यह कहना अब ओल्ड फैशन बन चुका है। क्योंकि, अब सकारात्मक भावनाओं को भी पैसों का दीमक लग चुका है। अगर पैसा है तो सब कुछ है, वरना आपको कोई नहीं पूछता चाहे नाते, रिश्तेदार ही क्यों न हो? समाज में आपकी इज्जत है तो वह अच्छा पैसा होने के कारण और बढ़ेेगी। पैसे ने संबधों को बिगाड़ा, व्यक्ति को स्वार्थी बनाया, समाज में अमीर और गरीब का अंतर बढ़ाया, फिर भी पैसा बोलता है ... और अपने लिए अच्छाईयां खरीदना भी जानता है। आखिर पैसे से मोह होना न तो गलत है और न पैसा कमाना ही! ... पैसा जोड़ना भी गलत नहीं और पैसा खर्च करना भी गलत नहीं। पैसे में एक अलग तरह का आकर्षण है, यह चुंबकीय आकर्षण केवल इस कारण ही है कि पैसे से सबकुछ खरीदा जा सकता है। इस बेहद आकर्षक

हिन्दी फिल्मों के विदेशी दर्शक

बॉलीवुड की फिल्मों को विदेशी दर्शकों द्वारा पसंद किया जाना कोई नई बात नहीं है। ब्लैक एंड व्हाईट के जमाने से भारतीय फिल्मों को चीन से लेकर रूस तक पसंद किया जाने लगा था। इसके बाद भी भारतीय सिनेमा को उसके सुखांत के लिए कई देशों में पसंद किया गया। भारतीय फिल्मों को विदेशी इनकी कलरफुलनेस के लिए पसंद करते है, क्योंकि इसमें संगीत है रिश्तों की महक है संदेश है और फिल्म के अंत में नकारात्मक ताकते हारती ही है। जबकि, इसके उलट विदेशी फिल्मों में नकारात्मकता काफी हावी होती है और विषय भी आपसी संबंधों को छोड़ इस प्रकार रहते है जिनमें परिवारिक रिश्तों के संबंध में कुछ भी नहीं रहता है। भारतीय सिनेमा को अफ्रीका के देशों में भी खूब पसंद किया जाता है। क्योंकि, उनके अनुसार भारतीयों का किसी भी समस्या को देखने का नजरिया काफी अलग है, जिसमें सकरात्मकता काफी ज्यादा होती है और किसी भी समाज को हरदम सकारात्मकता की जरुरत होती ही है। भारतीय सिनेमा ने वर्तमान में काफी उँचाईयों को छू लिया है। पैसा, प्रसिद्धि के मामले में हो या भारतीय फिल्म कलाकारों के ब्रांड बनने की बात हो सभी दूर बॉलीवुड के नायक नायिकाओं को लेकर उ

सभी से प्रभावित होता बॉलीवुड!

बॉलीवुड में यह बात अकसर कही जाती है कि फलां फिल्म हॉलीवुड की फलां फिल्म से प्रभावित है। कई फिल्में तो सीन दर सीन वैसी की वैसी कॉपी की गई होती है। इसके अलावा कई फिल्मों में एक्शन दृश्यों को भी जस का तस लिया जाता है, केवल बॉलीवुड में संगीत का पक्ष ही ऐसा है जो ओरीजनल होता है (आजकल वह भी नहीं रहा)। वास्तव में किसी से प्रभावित होना एक अलग बात है, कॉपी करना अलग। बॉलीवुड में प्रभावित होकर की जाती है, जिससे दर्शकों को बात समझ भी न आए और फिल्म निर्माता का काम भी बन जाए। प्रभावित होने की यह क्षमता इतनी ज्यादा है कि वह किसी से कभी भी प्रभावित हो सकता है। हॉलीवुड से प्रभावित होना तो अब ओल्ड फैशन है। कई फिल्म निर्माता अब स्पेनी, इतावाली और यहाँ तक इजराइल व अन्य देशों की फिल्मों से भी प्रभावित हो जाते है। इनकी देखा-देखी म्यूजिक डायरेक्टर भी कहाँ पीछे रहने वाले थे ... उन्होंने भी विदेशी बीट्स को पंजाबी बीट्स में बदलना शुरू कर दिया और ऐसी फिल्मों का संगीत हिट भी हो रहा है। भारतीय फिल्मकारों का प्रभावित होने का यह दौर जारी है। प्रभावित होना दस बीस साल पुरानी परंपरा नहीं, बल्कि उससे पहले से ऐसा हो

खुशियों के दीपक में आस्था का तेल

हमारा देश धार्मिक है कुछ ज्यादा ही धार्मिक है ... धार्मिकता की हद यह है कि गणेश प्रतिमाएं दूध पीती हैं और सारा देश नतमस्तक हो जाता है, कोई वैज्ञानिक कारण नहीं जानना चाहता। हाल ही में मुरैना में एक साधु ने अपने आप को आग लगा ली और पुलिस वालों सहित सभी उनकी अग्नि समाधि को अपने मोबाईल कैमरे में कैद करते रहे। उनके अनुसार यह चमत्कार ही है। दरअसल, देश में अब आस्था धर्म पर भारी होती जा रही है। आस्था जब तक आस्था रहे तब तक ठीक पर आस्था जुनून बन जाए, तब मुश्किलें आरंभ हो जाती है। दीपावली के पर्व पर सभी खुशियाँं फैलाना चाहते है और पर्व में निहित अपनेपन में खो जाना चाहते हैं। पर जैसे जैसे हम आधुनिकता की ओर कदम बढ़ा रहे है आस्था कठोर औरै कट्टर होती जा रही है। हम आस्था के कट्टरपन में खुशियाँ ढूंढ़ रहे और इस कारण खुशियों के दीपक को जलाए रखने के लिए उसमें आस्था का तेल डालते जा रहे है। आस्था होना कोई बुरी बात नहीं है, यह व्यक्ति का निजी मामला है। परंतु आस्था अपनी निजपन की सीमा को लांघकर सार्वजनिक होने लगे तब यह दूसरे व्यक्ति की आस्था पर अतिक्रमण करने जैसा है। हम खुशियां ढूंढ़ते है पैसों में परिवार में

वेक अप राज...

राज ठाकरे अब तो जाग जाओं...संकीर्ण विचारधारा वाले इस नेता ने उत्तर भारतीयों के खिलाफ खूब विष वमन किया है और अब भी जारी है। फिल्म वेक अप सिड में बाम्बे को मुम्बई करवाने के लिए उसने फिल्म के निर्माता करण जौहर को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया। दरअसल राज ठाकरे की राजनैतिक मजबुरी कहे या भड़ास उसे उत्तर भारतीयों के प्रति दुर्भावना रखना ही पडेगी तभी तो राज ठाकरे की दुकान चलेगी। आखिर भाषा और प्रांत को लेकर इतना झगड़ा वे क्यों मचा रहे है और आखिर इसका फायदा उन्हें क्या मिलेगा? उत्तर भारतीयों को गाली देने में राज को खुब मजा आता है और वे अक्सर इस प्रकार की हरकते करते रहते है पर फिल्मवालों के साथ करने का मजा उन्हें जरा ज्यादा ही आता है क्योंकि इस कारण मीडिया ध्यान खुब जाता है और उनकी पार्टी को तथाकथित लोकप्रियता भी मिल जाती है। पर अब राज ठाकरे को जगाने का समय आ गया है उन्होंने वेक अप सिड फिल्म को लेकर आपत्ती दर्ज की थी पर असल में अब वेक अप राज कहने का समय आ गया है। राज ठाकरे जिस संकीर्ण मानकिता के साथ राजनीति कर रहे है वह लंबे समय तक नहीं चल सकती। आज लोग इतने समझदार तो हो ही गए है कि गुंडागर्दी की राज

मार्केटिंग के समक्ष नतमस्तक संपादकीय

हिन्दी मीडिया को लेकर अजीब से घबराहट फैलते जा रही है क्योंकि हिन्दी मीडिया स्वयं को फैला रहा है और इस तरह से फैला रहा है जिसकी कल्पना पहले कभी नहीं की गई थी। इस फैलाव में गुणवत्ता के साथ समझौता किया जा रहा है और खासतौर पर मार्केटिंग की दखल संपादकीय में इस कदर बढ़ गई है कि अब संपादकीय को अपना बोरिया बिस्तर बांध कर मार्केटिंग की गोदी में जाकर बैठने के अलावा कोई चारा नहीं रह गया है। लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की नींव का आधार विज्ञापन हो गए है। विज्ञापन नहीं तो कुछ नहीं यही मूलमंत्र सभी अखबारों का हो गया है क्योंकि इसी के बल पर वे अपना फैलाव करना चाहते है ऐसा कमजोर फैलाव जो कभी भी भरभराकर गिर सकता है। समाचार पत्र अब कारपोरेट तरीके से चलाए जा रहे है यह ठीक भी हंै आधुनिक तकनीको का सहारा लेकर अखबार चलाने में कोई बुराई नहीं परंतु मार्केटिंग के नित नए हथकंडो के कारण आधुनिक सांचो में ढले अखबार की आत्मा आहत हो रही है। अखबार के संपादकीय विभाग में काम करने वाले लोगों की कलम (अब कम्प्युटर की बोर्ड) डरा हुआ है पता नहीं कौन सी खबर में किसी विज्ञापनदाता का नाम न चला जाए । यही नहीं संपादकीय पर अब विज्ञापनदात