अकेला हूँ...अकेला ही रहने दो
अकेलापन भी खुब अपनापन लिए रहता है.. इसमें इंसान स्वयं से बाते करता है और अपने व्यक्तित्व के विभिन्न् रंगो से रुबरु होता है। बात खुब ज्यादा आध्यात्मिक नहीं है बस सोचने भर की बात है। अकेलेपन काटने को दौडता है यह बात सच है परंतु कुछ समय बाद । व्यक्ति जब अकेला होता है तब पहले उसे खुब खुशी होती है। अकेला रहुँगा मन की करुंगा और वह करता भी है। बाकी बाते छोड़े तब अकेले व्यक्ति के स्वयं से संवाद का जो समय होता है वह काफी महत्वपूर्ण होता है। उस समय मन तरह तरह की बाते करता है और न जाने कितने रंग बदलता है। इंसान को स्वयं के भीतर के खलनायक से लेकर नायक से परिचय हो जाता है। ऐसे में अधिकांश व्यक्ति स्वयं के आसपास ही विचारों को बुनता है जिसमें स्वयं की सफलता, असफलता, इच्छाओं और आकांक्षाओं से लेकर प्रेम,दुश्मनी,प्रतिस्पर्धा आदि शामिल होते है। स्वयं से बातचीत करने का सिलसिला इस बात पर निर्भर करता है कि इंसान चाहता क्या है? अगर व अतिमहत्वकांक्षी होगा तो निश्चित रुप से पैसा कही न कही उसके विचारो में आएगा ही परंतु इंसान सही मायने में आत्मविश्लेषण करना चाहे या स्वयं की कोई समस्या से निजात पाना चाहता है तो अक...