जन्माष्टमी विशेष

                                                                                                                                   

 बांसुरी पर आखिर क्या बजाते थे भगवान कृष्ण! 

मोहक, मनमोहिनी, मन को हरने वाले मधुर सुरों से युक्त सुरों के समूह जब आपके तन मन को बस भक्ति रस में डूबों दे, तब उस माहौल और पवित्र सुरों की बात ही कुछ ओर होगी। स्वयं भगवान श्रीकृष्ण जब बांसुरी बजाते होंगे तब सुर भी अपने आप आत्ममुग्ध होते होंगे, इठलाते होंगे, इतराते होंगे कि हम तो सही मायने में श्रीमुख से ही निकल रहे हैं। हमारा सृजन तो स्वयं नारायण कर रहे है। सभी सुर भक्ति रस में पगे और मधुरता का चोला ओढ़कर बांसुरी से बाहर वातावरण में फैलते होंगे। क्या भगवान कृष्ण की बजाई बांसुरी की ध्वनि बहुत दूर तक जाती होगी! क्या भगवान कृष्ण बांसुरी पर राग आदि बजाते थे! उनकी बजाई बांसुरी केवल कर्णप्रिय नहीं बल्कि मनप्रिय और आत्मप्रिय होती थी। उन सुरों में कितनी पवित्रता और निरागसता होगी जो स्वयं भगवान श्रीकृष्ण बजाते होंगे।

- अनुराग तागड़े
 
संगीत नारायण को प्रिय है इसलिए संगीत को परब्रह्म कहा गया है। क्योंकि, संगीत की साधना और ब्रह्म साधना को एक समान माना गया है। संगीत से अवचेतन मन में भी स्पंदन होता है आनंद होता है आत्मा को सुख पहुंचता है। कई बार ध्यानस्थ होकर व्यक्ति परमानंद की अनुभूति करता है, जो वर्षों की तपस्या के बाद साधक को होती है। वैसे संगीत साधक और अध्यात्म साधक में कोई विशेष अंतर नहीं है। साधना अपने आप में त्याग, समर्पण और एकाग्रता की मांग करती है और चाहे प्रभुक्ति हो या संगीत की भक्ति दोनों में ही समान रूप से समर्पण का भाव चाहिए होता है। कई बार यह प्रश्न भी उठता है कि आखिर नारायण को संगीत की क्या जरुरत? भगवान शिव को तांडव नृत्य,डमरु साथ में रखने की क्या जरूरत? मां सरस्वती वीणा क्यों बजाती है या राम भक्त हनुमान जी को संगीत इतना प्रिय क्यों है? क्या संगीत के बिना आध्यात्मिक साधना की कल्पना की जा सकती है! यह प्रश्न भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि कथावाचकों से लेकर बड़े साधक भजन जरुरत करते है, बिना भजन के साधना कैसे हो सकती है। संत तुकाराम से लेकर आधुनिक युग के जितने भी महंत और स्वामी है सभी संगीत साधना को बड़ा महत्व देते है। भगवान विट्ठल की भक्ति में अभंग गायन हो या फिर रामनाम की संगीतमय धुन आज भी सभी को भीतर तक प्रभावित करती है। जैसे पंच महाभूत है वैसे ही संगीत है। क्योंकि, संगीत प्रकृति की आवाज है। प्रकृति अपने सुरों को विभिन्न आयामों में प्रस्तुत करती है वह बादलों की उमड़ घुमड़ में है बरसात की बूंदों में हवाओं में है पक्षियों के कलरव में है। दरअसल, प्रकृति का संगीत सभी दूर समान है। कल्पना करें कभी मोर आवाज निकाल रहा है, तब आप भी उस सुर में अपना सुर मिला सकते है। कोयल गा रही है तब आप भी उस सुर को समझ सकते है यानी इंसान, पक्षी सुर से सुर मिला सकते है। यह प्रकृति की आवाज है। हम प्रकृति के अंश मात्र हैं, पर प्रकृति का संगीत एक समान है। प्रकृति का निर्माण नारायण ने सबसे पहले किया है यानी संगीत के सुर उनकी आवाज यह सब कुछ पहले हुआ है। यह राग दारी वगैरह यानी संगीत का आर्गेनाइज्ड फार्म बाद में आया। मनुष्य जब से ज्ञानी हो गया, तब उसने सुरों के नाम भी दिए उसे विभिन्न कैटेगरी में बांटा। जैसे एक निर्झर बहती नदी में से हमनें अलग-अलग नहरें निकाल दी। सब अलग-अलग दिशाओं में जा रही है, पर सबका पानी एक ही है वैसे ही संगीत का मूल स्वरूप वहीं है। बस हमने यानी मनुष्य ने अपने ज्ञान के आधार पर उसको बांट दिया। वेस्टर्न म्यूजिक, इंडियन म्यूजिक,साउथ इंडियन म्यूजिक, उत्तर हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत यह सबकुछ हमारी देन है। सुर तो वहीं है अपने पवित्र स्वरुप में, वैसे ही है वही ध्वनि, वहीं मधुरता, वहीं आनंद और वहीं सुख देने वाले। नारायण जब श्रीकृष्ण अवतार में थे, तब उन्होंने अपनी वेणू यानी बांसुरी से न केवल मनुष्यों को बल्कि जानवरों तक को मोहित कर दिया था। कृष्ण जब बांसुरी बजाते थे, तब संपूर्ण प्रकृति मोहित हो जाती थी फिर क्या जानवर और क्या मनुष्य! कृष्ण अपनी बांसुरी पर जब धुन छेड़ते थे तब वे ध्यानमग्न होकर बजाते थे। जब नारायण ध्यानस्थ होकर बांसुरी बजाएंगे, तब प्रकृति मनुष्य और क्या जानवर ऐसे ध्यानस्थ आकर्षण में खींचे चले जाते थे कि उस आनंद से बाहर आने की इच्छा ही नहीं होती। हमने अधिकांश रुप से संगीत को बंद कमरों में बड़े-बड़े सांउड इंजीनियरों के सानिध्य में स्पीकरों के माध्यम से सुना है। कभी प्रकृति के बीच जाकर देखें प्रकृति का संगीत सुने और फिर जो भी वाद्ययंत्र है वह प्रकृति के बीच जाकर बजाकर देंखे या सुने तो अलग ही आनंद आएगा। भगवान श्रीकृष्ण की बांसुरी सुनकर केवल गोपियां नहीं, संपूर्ण वातावरण ही मंगलमय हो जाता था। फिर क्या सुबह के समय बांसुरी तान छेड़ते समय राग भैरव, अहीर भैरव, तोड़ी जैसे राग भगवान बजाते होंगे। दोपहर में वृंदावनी सारंग और शाम के समय श्री आदि राग बजाते होंगे। दरअसल, यह सबकुछ मनुष्य की सोच है जो सुबह के सुर भगवान श्रीकृष्ण लगाते होंगे वह निश्चित रुप से आज के रागों से ही मेल खाते होंगे। इसलिए कि अहीर भैरव के सुर हमें सुबह का एहसास देते हैं, यह सोच मनुष्य की तो बिल्कुल भी नहीं हो सकती। कौनसे सुरों से सुबह का एहसास होता है, यह तय करने वाला तो वहीं हो सकता है जिसने सुबह शाम और रात का निर्माण किया है। जिसने इस ब्रम्हांड का निर्माण किया है, जो नारायण है जो आत्मा की ओढ़ है और जो साक्षात परब्रम्ह है। कृष्ण की बांसुरी वेणू के सुर जब वातावरण में अपनी जगह बनाते होंगे, तब प्रकृति ध्यान से सब कुछ सुनती होगी, तब आनंद की पराकाष्ठा होती होगी। कई बातें भगवान श्रीकृष्ण की बांसुरी के बारे में कही जाती है कि भगवान शंकर ने उन्हें यह बांसुरी दी और सोलह हजार गोपियों को एक साथ वे अलग अलग सोलह हजार राग या धुनें सुनाते थे। यह सभी बातें गौण हैं, क्योंकि जिसने सुरों का निर्माण ही किया है उसके सामने सोलह हजार रागों की क्या बात करें! भगवान श्रीकृष्ण की बांसुरी से निकले सुर आज भी वातावरण में होंगे और यही कारण है कि आज भी हम सुरों की और उतने ही आकर्षित होते हैं जैसे सब कुछ नया सा हो! जबकि, सुर वही है, वे नश्वर है उनका स्वरूप वहीं है और शायद यहीं तो परमानंद है जो हमें बार बार सुर दे रहे है। यह कृष्ण के दर्शन करवाते हैं। यह राम भी है और यह नारायण भी है।

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