रंगकर्म ने संक्रमण दौर में नई राह खोजी  


- अनुराग तागड़े

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और रंगकर्मी हैं)
-----------------------------------------------

   
शौकिया रंगकर्म करने वाले कलाकार हजारों की संख्या में हैं। रंगकर्म करने के पीछे उनकी जिद और जुनून है। ऐसे में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि इस जिद और जुनून की पीछे क्या है! नाटक करना है तो पूरा दल लग जाता है। इससे मतलब यह नहीं कि मंच पर सामने कौन दिख रहा है, बस जुनून है सर्वश्रेष्ठ करने का। पार्श्वसंगीत से लेकर नेपथ्य के लिए टीम अपना श्रेष्ठ देने की कोशिश इसलिए करती है, दर्शकों को पसंद आना चाहिए। रंगकर्म में ही कर्म जुड़ा है, इस कारण इस क्षेत्र में ढेर सारी मेहनत और कुछ शोहरत है। कई कलाकार अपनी जिंदगी लगा देते हैं, तब जाकर उन्हें थोड़ी बहुत पहचान मिल पाती है। पर, वे इतनी मेहनत पैसा और पहचान के लिए नहीं, बल्कि उनके भीतर रंगकर्म के क्षेत्र में कुछ करने का जुनून होता है और या रंगकर्म का रंग उन्हें अपने में इस तरह भिगो देता है कि वे बस उसी में रमना चाहते है। उसमें रंगना चाहते है और वहीं करना चाहते हैं।
   कोरोनाकाल में भी यह रंग अलग ही रूप में सामने आया। इंदौर के रंगकर्म के क्षेत्र की बात की जाए तब कुछ समय तक शहर के रंगकर्मियों ने स्थिति सुधरने का इंतजार किया, परंतु एक समय के बाद कुछ नया करने की बात सामने आई और ऑनलाईन नाटकों का दौर भी आरंभ हुआ। सभी कलाकार अपने-अपने घरों में बैठे है और वहीं से अभिनय करते हैं। दर्शकों को एक लिंक के माध्यम से जोड़ा जाता है। दर्शकों ने इसका जितना आनंद लिया, उससे कहीं ज्यादा रंगकर्मियों को अच्छा लगा कि वे एकल अभिनय के साथ ही दर्शकों तक पहुंच पा रहे है। कोरोना काल में प्रयोग बहुत हुए, पर पीड़ा भी बहुत हुई। कई रंगकर्मियों को समस्याएं भी बहुत आई। क्योंकि वे जिस पेशे में थे वहां पर रोजगार की समस्या थी। इस कारण वे अपना शौक यानी रंगकर्म नहीं कर पाएं। 
   भूखे पेट रंगकर्म नहीं कर सकते। खैर दर्शकों ने भी इसे समझा और जो स्थापित रंगकर्मी थे, वे समझ रहे थे और अब भी समझ रहे है। पीड़ा बहुत है पर रंगकर्म साहस देता है, संबल देता है और साथ देता है। उस दु:ख को कम करने के लिए जो कोरोनाकाल में उसे मिला है। रंगकर्म उसका साथी है जिसे वह अपना सुख दु:ख बांट रहे हैं। उसी के माध्यम से अभिव्यक्त भी कर रहे है। कोरोनाकाल की समाप्ति के बाद अब यह दर्शकों की जिम्मेदारी भी है कि वे रंगकर्मियों का उत्साहवर्धन करें! वैसे रंगकर्मी स्वयं ही उत्साहित रहते हैं और कहते है यह रंगकर्म है, यह आपकी पूरी परीक्षा लेगा। बात केवल रंगकर्म की नहीं, बल्कि बात कला जगत की भी है। हमें दर्शकों से लेकर समीक्षकों, अख़बारों और तमाम मीडियाकर्मियों को इन कला साधकों को साथ देना है। उन्हें हाथ पकड़कर संबल देना है और आगे बढ़ने की प्रेरणा देना है! तभी सही मायने में हम अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन सही तरह से कर पाएंगे। 
   एक कलाकार को पैसे से ज्यादा तारीफ अच्छी लगती है और आपकी एक प्रोत्साहन से भरी तारीफ उसे रंगमंच पर उत्साह से भर देगी। वह जोश से भर उठेगा और फिर वहीं पुराने दिनों को याद कर जब वह मंच पर अपना पहला संवाद आत्मविश्वास के साथ बोलेगा। तब यकीन मानिए हम सभी खुश होंगे आनंदित होंगे और उस सुख से साक्षात्कार करेंगे, जो कलाओं में निहित है जिसका पैसों से कोई लेना देना नहीं है। यह उस कलाकार का आत्मसुख है जिसके लिए वह अध्यात्म की तर्ज पर ध्यान लगाता है। अपनी कला को सिद्ध करने के लिए, अपनी कला के स्तर को ऊपर उठाने के लिए और अपने भीतर के आनंद को अनुभव करने के लिए। यह कलाकार के भीतर का आनंद है जिसका प्रकाश जितना वह महसूस करता है। उतना ही बाहर दर्शकों तक भी पहुंचता है।
    रंगकर्म हो या फिर अन्य कलाएं यह अपने आपमें एक साधना है। यह साधना कला के लिए है और जब कलासाधक अपनी साधना को लेकर जब दर्शकों के बीच पहुंचता है, तब कला का एक ऐसा ओज निर्माण होता है जो कलाकार के आभामंडल से निकल कर सीधे दर्शकों तक पहुंचता है। शायद कला के आनंद को दर्शकों तक पहुंचाना यानी एक आभामंडल की साधना का सभी तक पहुंचना ही है। अगर इसे आध्यात्म के रुप में परिभाषित किया जाए तब। कलाएं जीवित तभी रह पाएंगी, जब दर्शक उसमें अपनी रुचि दिखाते रहेंगे वरना कलाकार अपनी जिंदगी तक तो साधना करता रहेगा। पर, उस कला को आगे बढ़ाने के लिए कोई नहीं रहेगा। कोरोनाकाल में कलाकारों ने बहुत भुगता है और अब भी भुगत ही रहे है। इस समय उनका आभामंडल निस्तेज हो गया है। उसमें से वह दिव्यप्रकाश की रोशनी कम होती नजर आ रही है। वह रोटी के आगे मजबूर है और कला के क्षेत्र से पलायन अगर आरंभ होता है, तब इसका सीधा असर किसी भी संस्कृति पर पड़ता है।
   महामारी के इस दौर में हमें इस बात पर भी उतना ही ध्यान देना होगा। क्योंकि, जब बीमारी चली जाएगी, तब लोगों के मानसिक स्वास्थ्य का देखभाल कला क्षेत्र बखूबी कर पाएगा। कलाओं में वह ताकत है कि वह अवसाद और नकारात्मकता को व्यक्ति पर हावी नहीं होने देता। कलाएं जीवन का अंग है और हमें वर्तमान में अपने इस अंग की भी उतनी ही देखभाल करनी है, जितनी हम अन्य बातों की ओर ध्यान दे रहे है। यह काम वैसे इतना आसान भी नहीं है। क्योंकि, कलाओं का सबसे आखरी छोर ऐसे कलाकार जो जीविकोपार्जन के लिए कलाओं पर निर्भर रहे थे वे दूसरे क्षेत्रों में कदम रख चुके हैं। क्योंकि, उन्हें परिवार का पालना है। रंगकर्म के क्षेत्र में तो चुनौती और भी बड़ी है। क्योंकि, यहां समूह कार्य करता है, एकल अभिनय कब तक करते रहेंगे। जब तक समूह के सभी सदस्यों का पेट भरा नहीं होगा तब तक कला भीतर से निकल ही नहीं पाएगी।

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

अकेला हूँ...अकेला ही रहने दो

लता क्या है?

इनका खाना और उनका खाना