शिक्षा माफिया पर कसो नकेल


ट्रांसपोर्ट...खाना सबकुछ आउटसोर्स
- बढ़ती जा रही निजी स्कूलों की मनमानी
- डमी एडमिशन से मालामाल हो रहे स्कूल वाले
- किसी भी तरह से फीस बढ़ाने के तरीके ढूंढते हैं
- होम स्कूल का बढ़ रहा प्रचलन
(अनुराग तागड़े)
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इंदौर। प्रदेश शासन भले ही स्कूल संचालकों की गोद में बैठकर प्रदेश के निजी स्कूलों को मनमानी करने की अनुमति देता रहे पर असलियत यह है कि बड़े-बड़े पांच सितारा स्कूलों से आम जनता का मोह भंग होता जा रहा है। यहां पर पढ़ाई छोड़कर बाकी अन्य गतिविधियों पर ध्यान देने की बात सामने आती है और सभी के लिए पैसे अभिभावकों से लिए जा रहे हैं। आपसी होड़ और दिखावे के इस युग में माता-पिता अपने बच्चों को सबसे सर्वश्रेष्ठ स्कूल में भर्ती करवाते हैं। इसके कारण भी अजीब तरीके के होते हैं जैसे स्कूल की बस ए.सी. वाली है, स्कूल में बच्चों को खेलने के लिए सॉफ्ट फ्लोर है और स्कूल में उच्च गुणवत्ता वाला खाना दिया जाता है।  पर जब शिक्षा की बात आती है तो स्कूल वाले माता-पिता पर सब कुछ थोप देते हैं।
एडमिशन के लिए इवेंट का सहारा
निजी स्कूलों में अब एडमिशन का तरीका भी बदल गया है। निजी स्कूल अब सीधे रूप से बड़ी मल्टियों और कॉलोनियों में मार्केटिंग करते हैं। यह दरअसल डोर टू डोर मार्केटिंग होती है जिससे एडमिशन तलाशे जाते हैं। इसके लिए बकायदा स्कूलों में इवेंट मैनेजर तक रखे जा रहे हैं और फन एक्टिविटी के नाम पर चित्रकला व अन्य प्रतियोगिताएं आयोजित की जाती हैं। प्रतियोगिताओं के नाम से बच्चों का डाटा इकठ्ठा करते हैं। इसके बाद बच्चों के माता-पिता को फोन लगाए जाते हैं। आउटसोर्स कर कमाई के तरीके
निजी स्कूलों की मनमानी का आलम यह है कि वे अपने यहां सुविधाओं की बातें तो बहुत करते हैं पर हरेक सुविधा आउटसोर्स कर देते हैं। स्कूल में खाना दिया जाता है उसके पैसे संपूर्ण वर्ष के लिए लिए जाते हैं और छुट्टियों के पैसे काटे नहीं जाते। जबकि स्कूल में खाना बनाने का ठेका आउटसोर्स होता है। जो खाने का ठेका लेते हैं वे प्रतिदिन स्कूल में कितने बच्चे आते हैं इसकी गिनती करने के बाद खाना बनाते हैं, वह भी एक ही जगह और फिर अलग-अलग स्कूलों में सप्लाई कर देते हैं। याने प्रतिदिन के अनुसार उन्हें सभी बच्चों के पैसे तो मिल जाते हैं पर वे खाना उपस्थिति अनुसार देते हैं। इसमें वे अच्छा मुनाफा कमा लेते हैं क्योंकि प्रतिदिन किसी भी स्कूल में सौ प्रतिशत उपस्थिति होती नहीं है।
वहीं खाने की गुणवत्ता को लेकर भी जो जांच होना चाहिए वह नहीं होती है। स्थानीय प्रशासन जब इच्छा हो तब निजी स्कूलों की मेस में जाकर जांच करता है वर्ना कुछ भी कार्रवाई नहीं होती। कई स्कूलों के मेस के किचन में जाकर देखा जाए तो गंदगी में ही खाना बनता है या परोसा जाता है।
केवल सत्र के शुरूवात और अंत में होती है बसों की जांच
निजी स्कूल अब अपनी ट्रांसपोर्ट की जरुरतों को भी आउटसोर्स कर रहे हैं जिससे कि ड्राइवर से लेकर कंडक्टर और गाड़ियों के रखरखाव का जिम्मा उनका नहीं होता। इस कारण निजी स्कूलों की बसें भी तेज गति से दौड़ती नजर आती हैं। स्पीड गर्वनर की केवल बातें होती है, स्पीड कभी कंट्रोल नहीं होती क्योंकि इन सभी लोगों को पता होता है कि बसों की चेकिंग केवल सत्र के आरंभ में और सत्र के अंत में होगी बाकी तो उनका ही राज है। इतना ही नहीं बसों में महिला कंडक्टरों की नियुक्ति की अनिवार्य रूप से की जाना है पर काफी कम स्कल ऐसे हैं जिन्होंने इस नियम का पालन किया है।
डमी एडमिशन का बड़ा बाजार
कई निजी स्कूल केवल डमी एडमिशन के कारण ही लाखों की कमाई कर रहे हैं। ये स्कूल ऐसे बच्चों के एडमिशन लेते हैं जिन्हें स्कूल आना ही नहीं है। यह सब कुछ कक्षा 9वीं से 12वीं तक होता है। इसमें कोचिंग क्लास संचालकों की भूमिका भी होती है और कोचिंग क्लास व स्कूल वाले मिलकर जमकर पैसा कूटते हैं। 
काउसलिंग के नाम पर बच्चों का मन परिवर्तित करते हैं
कई निजी स्कूलों में कक्षा आठवीं और नौवीं में ही काउसलिंग की जाती है और यह विषय से संबंधित होती है। माता-पिता को भी लगता है कि स्कूल ने काफी अच्छा काम किया है काउसलिंग करके। परंतु इस काउंसलिंग में कोचिंग क्लास के शिक्षक और प्रोफेशनल काउंसलर आते हैं। वे येन-केन प्रकारेण बच्चों को साइंस मैथ्स लेने के लिए प्रेरित करते हैं ताकि बच्चे उनकी कोचिंग में भर्ती हो जाएं और उनकी अतिरिक्त कमाई हो। भले ही बच्चे की इच्छा हो न हो पर ये कोचिंग संचालक माता-पिता की भी अच्छी-खासी काउंसलिंग कर उनमें यह हवा भर देते हैं कि आपके बच्चे में ढेर सारी प्रतिभा है बस उसे हमारे जैसी कोचिंग की जरूरत है। अपने बच्चों की तारीफ सुनकर हर कोई फूल के कुप्पा हो जाता है और बस फिर एडमिशन करवा देता है कोचिंग क्लास में। एक और तरीका भी अपनाया जाता है जिसमें कोचिंग क्लास वाले स्कॉलरशिप की बातें करते हैं जिसमें एक निर्धारित तारीख पर परीक्षा का आयोजन किया जाता है और उसमें विभिन्न स्कूलों के बच्चों से परीक्षा दिलवाई जाती है। बच्चे की आर्थिक स्थिति और प्रतिशत के अनुरूप सभी बच्चों को दस से नब्बे प्रतिशत तक की स्कॉलरशिप दी जाती है याने अगर फीस एक लाख रुपए है तब पांच हजार दस हजार तक की छूट देते हैं और नब्बे प्रतिशत की छूट देते ही नहीं। माता-पिता को समझाया जाता है कि देखो आपका बच्चा कितना होनहार है स्कॉलरशिप ले आया है और अब आपकी जिम्मेदारी है कि उसे आगे बढाएं। माता-पिता न चाहते हुए भी बच्चे की खातिर लोन लेकर इन कोचिंग संचालकों के दर पर पहुंचते हैं। बच्चों के आईआईटी और अन्य बड़ी परीक्षाओं में चयन का तो नहीं पता पर कोचिंग संचालकों की जेबें लगातार भरती रहती हैं। 
होम स्कूल का प्रचलन तेजी से बढ़ रहा है
निजी स्कूलों की मनमानी और बेतहाशा फीस वृद्धि के कारण कई शहरों में अब लोग होम स्कूल का कंसेप्ट अपनाने लगे हैं।  इसमें बच्चों को माता-पिता स्वयं ही पढ़ाते हैं और जरूरत पड़ने पर विषय विशेषज्ञ की सेवाएं घर पर ही लेते हैं। इतना ही नहीं बच्चे का झुकाव जिस ओर होता है उसे उसका प्रशिक्षण अभी से देते हैं मसलन किसी बच्चे की स्पोर्ट्स में ज्यादा रुचि है तो उसके लिए ज्यादा समय मिल पाता है। कई फिल्मी सितारों के बच्चों का भी उदाहरण हमारे सामने है जिसमें उन्हें बचपन से ही घर में ही पढ़ाया गया और बाद जब उनका झुकाव पांचवी क्लास से एक्टिंग की ओर हुआ तब उन्हें एक्टिंग की हर बारिकी सिखाई गई। जब ऐसे बच्चों ने इंडस्ट्री में कदम रखा तो पहले दिन से ही वे एक्टिंग से लेकर डांस तक में अपडेटेड थे।

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