बस खटारा फिर भी हम इंटरनेशनल स्कूल


(अनुराग तागड़े)
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ऐसा लगता है कि गली-मोहल्ले के हर छोटे-बड़े स्कूल शिक्षा के वैश्विकरण की बात कर रहे हैं...बड़े-बड़े वादे और वैश्विक स्तर की सुविधाओं की बातें। स्वयं को ये स्कूल इस तरह से प्रोजेक्ट करते हैं कि केम्ब्रिज, हॉवर्ड जैसे शैक्षिणिक संंस्थान भी पीछे रह जाएंगे। जब इन संस्थानों में अभिभावक जाते हैं तब असलियत से रूबरू होते हैं। मध्यप्रदेश बोर्ड हो या फिर सीबीएसई बोर्ड हो दोनों ही स्कूलों में हालात एक समान ही हैं। सीबीएसई बोर्ड ने भी एकाएक इतनी अनुमतियां दे दी हैं कि सभी स्कूल इंटरनेशनल के नीचे की बात ही नहीं करते भले ही स्कूल की खटारा बसें हिचकोले खाते चल रही हों और लेडी कंडक्टर क्या बिना कंडक्टर के ही चलती हों। बसों में बच्चे भेड़-बकरियों की तरह भरे जाते हैं। केवल बसों की बात क्यों करें, रिक्शा-वैन सभी दूर हालात यही हैं। 
स्कूलों में फीस बेतहाशा ली जाती है पर खाने से लेकर खेलकूद तक की सुविधाएं नदारद रहती हैं। इतना ही नहीं स्कूल में अध्यापकों द्वारा पढ़ाई की गुणवत्ता पर ध्यान ही नहीं दिया गया जिसका परिणाम यह हुआ कि गत बीस वर्षों में कोचिंग क्लासेस ने कॉर्पोरेट स्वरूप ले लिया है और वे स्कूलों को निर्देशित करने लगे हैं। स्कूलों की हालत यह है कि कक्षा आठवीं के बाद कोई भी बच्चा स्कूल नहीं जाना चाहता बल्कि वह ज्यादा से ज्यादा समय कोचिंग क्लास में बिताता है। स्कूलों में कक्षा नवीं से बारहवीं तक डमी एडमिशन होते हैं जो स्कूलों के लिए फायदे का सौदा साबित होते हैं। जिसमें उन्हें केवल रजिस्टर में बच्चों को बताना है, असल में बच्चे स्कूल आते ही नहीं। केवल प्रैक्टिकल एक्जाम और मेन एक्जाम के समय वे आते है। ऐसे में कोचिंग क्लास वालों की पौ बारह है। 
केवल स्कूल ही नहीं प्री स्कूल के नाम पर भी लूटना जारी है। इन प्री स्कूलों को आप शहर की किसी भी गली में आसानी से देख सकते हैं। ये प्री स्कूल बड़े स्कूलों में एडमिशन दिलवाने के नाम पर बच्चों को भर्ती करते हैं। भीतर जाकर इनके कामकाज को अगर कोई देखे तब ये प्री स्कूल बेबी सिटिंग का कार्य ही करते हैं। ये स्कूल ढाई घंटे बच्चों को केवल बाईयों के भरोसे रखते हैं। सभी प्री स्कूल नियम-कानूनों के परे हैं। 
शहर के कई स्कूल बायपास से लेकर खंडवा रोड और अन्य दूरस्थ स्थानों पर हैं। बच्चों का आना-जाना बस से ही होता है लेकिन बसों की स्थितियां बिल्कुल भी ठीक नहीं है। स्थानीय प्रशासन और आरटीओ भी यदाकदा वर्ष भर में एकाध बार कार्रवाई कर इतिश्री कर लेते हैं। रोजाना जिन परिस्थितियों में बच्चे स्कूल जाते हैं वह बेहद चिंताजनक है। सभी बसों में लेडी कंडक्टर होना अनिवार्य है पर ऐसा अधिकांश स्कूलों की बसों में नहीं है। स्पीड गर्वनर, जीपीएस की बातें करना ही बेमानी है क्योंकि जैसे ही इस प्रकार का जांच अभियान चलता है स्कूल संचालक इसकी व्यवस्था वाली बसों को दो-चार दिनों तक चला देते हैं इसके बाद फिर वही ढाक के तीन पात।  
इंटरनेशनल नाम देने के साथ ही स्कूल इंटरनेशनल फीस वसूल लेते हैं और आम जनता लगातार उल्लू बनती जा रही है। कक्षा आठवीं के बाद डमी एडमिशन की लत के कारण बच्चे न ढंग से स्कूल में पढ़ पाते है ना ही कोचिंग क्लास में। डमी एडमिशन को लेकर न केवल जांच होना चाहिए बल्कि स्कूलों पर कार्रवाई भी होना चाहिए। 

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