खुशियों के दीपक में आस्था का तेल
हमारा देश धार्मिक है कुछ ज्यादा ही धार्मिक है ... धार्मिकता की हद यह है कि गणेश प्रतिमाएं दूध पीती हैं और सारा देश नतमस्तक हो जाता है, कोई वैज्ञानिक कारण नहीं जानना चाहता। हाल ही में मुरैना में एक साधु ने अपने आप को आग लगा ली और पुलिस वालों सहित सभी उनकी अग्नि समाधि को अपने मोबाईल कैमरे में कैद करते रहे। उनके अनुसार यह चमत्कार ही है। दरअसल, देश में अब आस्था धर्म पर भारी होती जा रही है। आस्था जब तक आस्था रहे तब तक ठीक पर आस्था जुनून बन जाए, तब मुश्किलें आरंभ हो जाती है।
दीपावली के पर्व पर सभी खुशियाँं फैलाना चाहते है और पर्व में निहित अपनेपन में खो जाना चाहते हैं। पर जैसे जैसे हम आधुनिकता की ओर कदम बढ़ा रहे है आस्था कठोर औरै कट्टर होती जा रही है। हम आस्था के कट्टरपन में खुशियाँ ढूंढ़ रहे और इस कारण खुशियों के दीपक को जलाए रखने के लिए उसमें आस्था का तेल डालते जा रहे है। आस्था होना कोई बुरी बात नहीं है, यह व्यक्ति का निजी मामला है। परंतु आस्था अपनी निजपन की सीमा को लांघकर सार्वजनिक होने लगे तब यह दूसरे व्यक्ति की आस्था पर अतिक्रमण करने जैसा है। हम खुशियां ढूंढ़ते है पैसों में परिवार में प्यार में धर्म में और आस्था में। आस्था के माध्यम से खुशियों को ढूंढना बड़ा मुश्किल काम है। सतही तौर पर देखे तो यह काफी आसान लगता है क्योंकि, आस्था की परिभाषा आम व्यक्ति के लिए काफी सीधी और सरल है। वह धर्मान्धता को आस्था मान लेता है।
धर्म के दुकानदारों ने अब दुकानों की जगह मॉल्स खोल लिए। इन मॉल्स में ग्राहक को फँसाने की पूर्ण तैयारी है। गांव के ग्राहक से लेकर शहरी और अमीर ग्राहकों के लिए इनकी फँसाने की रणनीतियां काफी अलग है। इन दुकानदारों ने बाकायदा अपने उत्पादों की मार्केटिंग कर रखी हैं। ये हाथों हाथ मोक्ष दिलाने की बात करते है और स्वयं को ही भगवान घोषित कर डालते है। इनकी दुकानों पर इनके हाथ पैर पड़ने वाले व इन्हें तोकने वाले इन्ही के कर्मचारी रहते है। अब तो इन धर्म की दुकानों को चलाने का एक बाकायदा फार्मेट सा बन गया है। चार चेले बनाओ जो येन केन प्रकारेण 25 परिवारों को पकड़कर बाबा के पास ले आते है। इनमें से पांच दस लोगों के काम बन जाते है जो कि बिना बाबा के पास जाए भी बन जाते पर उन्हें यह लगता है कि बाबा के कारण हुआ है। फिर ये 5-10 परिवार अपने रिश्तेदारों को बताते है और इस तरह धर्म की दुकान पर ग्राहक उमड़ने लगते है।
बाबा अपनी दुकान में एक और उत्पाद मांडवली का सजाते है। मांडवली बोले तो दो के बीच के झगड़े को सुलझाना। बाबा की इसमें भी कमाई है। फिर नेता आने लगते है और बाबाजी हाईप्रोफाईल बन जाते है और उन्हें अपने उत्पादों की मार्केटिंग के लिए अब कर्मचारियों पर निर्भर नहीं रहना पड़ता। बाबा गिरी करना हो तो टीम भावना का ध्यान रखना पड़ता है प्रापर्टी से लेकर अन्य बातों में। दरअसल बाबागिरी के बारे में इतना बताने के पीछे उद्देश्य यह है कि आजकल आम जनता में जबरर्दस्ती आस्था के इंजेक्शन लगाए जाते है। व्यक्ति को नहीं मानना है तभी येन केन प्रकारेण उसे अपना चेला बना ही लिया जाता है। ऐसी आस्था के बल पर व्यक्ति खुशियों की शापिंग करने के लिए निकलता है। इसमें पैसा भी खूब खर्च करता है पर अंत में उसे मिलता कुछ नहीं है।
ऐसे में आम व्यक्ति आस्था के नए प्रोडक्ट यानी नए बाबा की ओर कूच कर जाता है और फिर नया चक्र आरंभ होता है। ऐसे में खुशियां गौण हो जाती है और व्यक्ति स्वयं को यह मनाने में लग जाता है कि वह जो कर रहा है सही कर रहा है। इसका आध्यात्म या धर्म से कोई वास्ता नहीं रहता। एक सीमा पर आकर उसे लगने लगता है कि आस्था के बाजार में शापिंग करने की अपेक्षा वह स्वयं के आस्था की परिभाषा को बदल दे तब शायद कुछ अच्छा हो। और होता यह है कि धर्म के इन ठेकेदारों के यहां वह जाना बंद कर देता है और जब अपने आप खुशियां बरसना आरंभ होती है तब वह समझता है की अपने मन के दीपक में आत्मविश्वास का तेल और साहस की बाती लगाएगा तो उसके लिए कुछ भी असंभव नहीं।
अनुराग तागड़े
दीपावली के पर्व पर सभी खुशियाँं फैलाना चाहते है और पर्व में निहित अपनेपन में खो जाना चाहते हैं। पर जैसे जैसे हम आधुनिकता की ओर कदम बढ़ा रहे है आस्था कठोर औरै कट्टर होती जा रही है। हम आस्था के कट्टरपन में खुशियाँ ढूंढ़ रहे और इस कारण खुशियों के दीपक को जलाए रखने के लिए उसमें आस्था का तेल डालते जा रहे है। आस्था होना कोई बुरी बात नहीं है, यह व्यक्ति का निजी मामला है। परंतु आस्था अपनी निजपन की सीमा को लांघकर सार्वजनिक होने लगे तब यह दूसरे व्यक्ति की आस्था पर अतिक्रमण करने जैसा है। हम खुशियां ढूंढ़ते है पैसों में परिवार में प्यार में धर्म में और आस्था में। आस्था के माध्यम से खुशियों को ढूंढना बड़ा मुश्किल काम है। सतही तौर पर देखे तो यह काफी आसान लगता है क्योंकि, आस्था की परिभाषा आम व्यक्ति के लिए काफी सीधी और सरल है। वह धर्मान्धता को आस्था मान लेता है।
धर्म के दुकानदारों ने अब दुकानों की जगह मॉल्स खोल लिए। इन मॉल्स में ग्राहक को फँसाने की पूर्ण तैयारी है। गांव के ग्राहक से लेकर शहरी और अमीर ग्राहकों के लिए इनकी फँसाने की रणनीतियां काफी अलग है। इन दुकानदारों ने बाकायदा अपने उत्पादों की मार्केटिंग कर रखी हैं। ये हाथों हाथ मोक्ष दिलाने की बात करते है और स्वयं को ही भगवान घोषित कर डालते है। इनकी दुकानों पर इनके हाथ पैर पड़ने वाले व इन्हें तोकने वाले इन्ही के कर्मचारी रहते है। अब तो इन धर्म की दुकानों को चलाने का एक बाकायदा फार्मेट सा बन गया है। चार चेले बनाओ जो येन केन प्रकारेण 25 परिवारों को पकड़कर बाबा के पास ले आते है। इनमें से पांच दस लोगों के काम बन जाते है जो कि बिना बाबा के पास जाए भी बन जाते पर उन्हें यह लगता है कि बाबा के कारण हुआ है। फिर ये 5-10 परिवार अपने रिश्तेदारों को बताते है और इस तरह धर्म की दुकान पर ग्राहक उमड़ने लगते है।
बाबा अपनी दुकान में एक और उत्पाद मांडवली का सजाते है। मांडवली बोले तो दो के बीच के झगड़े को सुलझाना। बाबा की इसमें भी कमाई है। फिर नेता आने लगते है और बाबाजी हाईप्रोफाईल बन जाते है और उन्हें अपने उत्पादों की मार्केटिंग के लिए अब कर्मचारियों पर निर्भर नहीं रहना पड़ता। बाबा गिरी करना हो तो टीम भावना का ध्यान रखना पड़ता है प्रापर्टी से लेकर अन्य बातों में। दरअसल बाबागिरी के बारे में इतना बताने के पीछे उद्देश्य यह है कि आजकल आम जनता में जबरर्दस्ती आस्था के इंजेक्शन लगाए जाते है। व्यक्ति को नहीं मानना है तभी येन केन प्रकारेण उसे अपना चेला बना ही लिया जाता है। ऐसी आस्था के बल पर व्यक्ति खुशियों की शापिंग करने के लिए निकलता है। इसमें पैसा भी खूब खर्च करता है पर अंत में उसे मिलता कुछ नहीं है।
ऐसे में आम व्यक्ति आस्था के नए प्रोडक्ट यानी नए बाबा की ओर कूच कर जाता है और फिर नया चक्र आरंभ होता है। ऐसे में खुशियां गौण हो जाती है और व्यक्ति स्वयं को यह मनाने में लग जाता है कि वह जो कर रहा है सही कर रहा है। इसका आध्यात्म या धर्म से कोई वास्ता नहीं रहता। एक सीमा पर आकर उसे लगने लगता है कि आस्था के बाजार में शापिंग करने की अपेक्षा वह स्वयं के आस्था की परिभाषा को बदल दे तब शायद कुछ अच्छा हो। और होता यह है कि धर्म के इन ठेकेदारों के यहां वह जाना बंद कर देता है और जब अपने आप खुशियां बरसना आरंभ होती है तब वह समझता है की अपने मन के दीपक में आत्मविश्वास का तेल और साहस की बाती लगाएगा तो उसके लिए कुछ भी असंभव नहीं।
अनुराग तागड़े
टिप्पणियाँ
हद है! ये तो सरासर बेवकूफ़ी है. परंतु धर्मांधों को कौन कैसे समझाए?
आम आदमी के सपनों की सटीक व्याख़्या है. हम सभी भौतिक रूप से समृद्ध हो गए है लेकिन मानसिक परिपक्वता की आवश्यकता है. जनसामान्य की भवनाओं को उत्सवी शब्द देने पर बधाई!
अंतरा करवडे
khushi hui ki satat samvad kisi na kisi tarah jaari hai