मार्केटिंग के समक्ष नतमस्तक संपादकीय

हिन्दी मीडिया को लेकर अजीब से घबराहट फैलते जा रही है क्योंकि हिन्दी मीडिया स्वयं को फैला रहा है और इस तरह से फैला रहा है जिसकी कल्पना पहले कभी नहीं की गई थी। इस फैलाव में गुणवत्ता के साथ समझौता किया जा रहा है और खासतौर पर मार्केटिंग की दखल संपादकीय में इस कदर बढ़ गई है कि अब संपादकीय को अपना बोरिया बिस्तर बांध कर मार्केटिंग की गोदी में जाकर बैठने के अलावा कोई चारा नहीं रह गया है। लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की नींव का आधार विज्ञापन हो गए है। विज्ञापन नहीं तो कुछ नहीं यही मूलमंत्र सभी अखबारों का हो गया है क्योंकि इसी के बल पर वे अपना फैलाव करना चाहते है ऐसा कमजोर फैलाव जो कभी भी भरभराकर गिर सकता है। समाचार पत्र अब कारपोरेट तरीके से चलाए जा रहे है यह ठीक भी हंै आधुनिक तकनीको का सहारा लेकर अखबार चलाने में कोई बुराई नहीं परंतु मार्केटिंग के नित नए हथकंडो के कारण आधुनिक सांचो में ढले अखबार की आत्मा आहत हो रही है। अखबार के संपादकीय विभाग में काम करने वाले लोगों की कलम (अब कम्प्युटर की बोर्ड) डरा हुआ है पता नहीं कौन सी खबर में किसी विज्ञापनदाता का नाम न चला जाए । यही नहीं संपादकीय पर अब विज्ञापनदाताओं की तारीफ में चासनी में डूबे लेख लिखने को भी कहा जा रहा है ताकि और ज्यादा विज्ञापन आ सके। संपादकीय और मार्केटिंग का झगड़ा काफी पुराना है पर इस झगड़े में पहले एक दूसरे के प्रति आदर था परंतु अब मार्केटिंग ने संपादकीय को पूर्ण रुप से अपने कब्जे में ले लिया है। अगर विज्ञापन है तब किसी भी हालत में कितनी भी महत्वपूर्ण खबर क्यों न हो रुक जाएगी । अखबार चलाने के लिए पैसा लगता है यह बात सत्य है पर इस पैसे से महत्वपूर्ण है हिम्मत । अखबारो को अगर अपने पाठक वर्ग के सामने स्वयं को सही तरीके से रखना है तो सबसे पहले इस बात को मन से निकालना होगा कि अगर किसी व्यापारी या कंपनी ने विज्ञापन दिया है तो उसके विरुद्ध खबर अखबार में जा ही नहीं सकती। नवधनाढ्य वर्ग में अब यह बात गहरी होती जा रही है कि अखबारों को खरीदा जा सकता है और बात सही भी है। लाखों के विज्ञापन का घाटा कोई भी अखबार क्यंों सहे? पर अपने पाठको के प्रति उसकी कोई जिम्मेदारी नहीं । पाठक बेचारा अखबारो के विज्ञापनों में खबरें ढूंढता फिरता रहता है और मन मसोसकर रह जाता है कि आखिर उसने क्या गलती की है कि उसे जबरन इतने ज्यादा विज्ञापन परोसे जा रहे है। दरअसल कितने विज्ञापन देना इसकी सीमा रेखा तय है परंतु इसे मानने से मार्केटिंग विभाग द्वारा काफी पहले से मना कर दिया गया है। संपादकीय से जुड़े लोगो को यह लगने लगा है कि अगर ऐसा ही चलता रहा तब असल खबरों का क्या होगा ? क्या अपने देसी अखबार भी विदेशी अखबारों की तर्ज पर केवल किस मॉल में कौन सी सेल लगी है इसकी जानकारी का वाहक भर रहेगा। अखबार क्या से क्या हो गए है अब फील्ड में भागदौड़ करते पत्रकार की खबर को विज्ञापन के आगे बिना सोचे समझे बलि दे दी जाती है। दरअसल समस्या यह नहीं है कि अखबार में खबरे नहीं लगना बल्कि समस्या यह है कि पाठक कब तक यह सहन करते रहेगा और जिस तेज गति से अखबार अपने आप में फैलाव करते जा रहे है उससे यह बात निश्चित है कि अब पाठक ने अखबार की ओर ध्यान देना कम कर दिया है और यह प्रवृत्ति काफी घातक है। तमाम तरह के प्रलोभन जिसमें छतरी से लेकर लोटे बाल्टियां और प्लास्टिक के डिब्बो के सेट आदि से अपने पाठक बनाना और बाद में उन्हें ढेर सारे विज्ञापनों से भरा अखबार पकडा देना ताकि वे उपहार के बोझ तले ही सही अखबार पर नजर डालेंगे और अखबार को कहने को हो जाएगा कि हमारी रीडरशिप बढ़ रही है। मेरे अनुसार अखबारों का भविष्य खासतौर पर हिन्दी अखबारों का भविष्य इस बात पर निर्भर करता है कि कौन सा अखबार विज्ञापनों और खबरों में सही संतुलन रख पाता है।



- अनुराग तागड़े




टिप्पणियाँ

Ashish ने कहा…
Truly said! In earlier times, before independence, the Journalism was a mission for the people but now it has become a profession. Every profession needs PROFITS only.

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

अकेला हूँ...अकेला ही रहने दो

लता क्या है?

इनका खाना और उनका खाना