स्मृति शेष पद्मविभुषण गिरिजा देवी...

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सांगितिक आभा मंडल के दैदिप्यमान ओज से वे दमकती रहती थी
(अनुराग तागड़े)
जितनी लरजती गरजती उनकी आवाज उतना ही मीठा उनका बोलना...शब्दों का चयन भी जैसे कौन सबसे ज्यादा मीठा है यह विचार करके करती थी। गायकी के कई स्वरुप आए...तैयारी वाले कलाकार भी आए और चले गए परंतु गिरिजा देवी अपनी साधना और कार्यक्रमों में मस्त...वे सुरों की सच्चाई और गहराई को जानती थी और सच्चे सुर ही परब्रह्म है इस पर उनकी सिद्धहस्तता थी। दुनिया जहां उन्हें ठुमरी क्वीन के नाम से जानती है पर रागदारी पर क्या पकड़ थी उनकी। किसी भी राग की शुद्धता को वे कभी नहीं छोड़ती थी और अमूमन यह कहा भी जाता है कि अगर कोई ठुमरी,चैती,होरी और गजÞल गायक है तब वह शास्त्रीय रागों के साथ उतना न्याय नहीं कर पाता है परंतु गिरिजा देवी मुंह में पान गिलौरियां भले ही चबा रही हो पर जब बात रागों की आती तब चेहरे पर भी गंभीरता और पवित्रता का अनुठा संगम देखने को मिलता था। सेनिया बनारस घराने की गिरिजा देवी की गिनती ऐसे गायको में होती है जिन्होंने संपूर्ण जीवन सुरों को समर्पित कर दिया जिन्होंने नाते रिश्तेदारों से कही गुना ज्यादा रिश्ता सुरों से जोड़ा और न केवल स्वयं को इस क्षेत्र में आगे ले गए बल्कि बड़ा शिष्यवर्ग भी तैयार किया। 
आईटीसी के वो दिन शास्त्रीय संगीत के स्वर्णीम दिन थे
आईटीसी संगीत रिसर्च एकेडमी की स्थापना कोलकाता में हुई थी और आज भी आईटीसी में से प्रशिक्षण प्राप्त कलाकार सर्वोच्च शिखर को छू रहे है। आईटीसी ने देश के सर्वश्रेष्ठ गुरुओं का पैनल बनाया था जो नवोदित कलाकारों को प्रशिक्षित करता था और उन्हें रहने खाने की सुविधा भी देता था। प्रशिक्षण प्राप्त युवा शास्त्रीय संगीत के माहौल में ही डूबा रहता था और जब वह बाहर निकलता था तब ऐसे कलाकार के रुप में उसकी गिनती होती थी जो भविष्य में बेहतरीन कलाकार बनेगा ही। आईटीसी ने देश को कई कलाकार दिए जिनमें उस्ताद राशिद खान जैसे कलाकार भी शामिल है। आईटीसी में कोई भी युवा गायक प्रशिक्षण के लिए जाता था तब उसके मन में यह बात जरुर रहती थी कि भले ही कितने भी बड़े गायक कलाकार जैसे पं.अजय चक्रवर्ती आदि से वह गाना सीखे पर एकाध बार तभी ठुमरी के लिए गिरिजा देवी से मुलाकात कर ले। गिरिजा देवी युवाओं को ठुमरी की लचक और प्रस्तुतिकरण और बोलो का प्रयोग आदि सिखाती जरुर थी परंतु वे सबसे पहले रागदारी,सुरों की सच्चाई पर जोर दिया करती थी। आईटीसी के माध्यम से और वैसे वैयक्तिक रुप में भी गिरिजा देवी ने कई शिष्य तैयार किए। 
कोलकाता में ही मन रमता था
 वैसे तो गिरिजा देवी का संबंध बनारस घराने से है और वे वही पर लगातार रही भी और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में भी सेवाएं दी परंतु आईटीसी के कारण उनका लगातार कोलकाता आना जाना लगा रहता था और कोलकाता में जिस तरह से कलाओं को आगे बढ़ाने के लिए प्रयत्न किए जाते है उससे वे बेहद प्रभावित थी और यही कारण रहा कि वे लगातार कोलकाता में आना जाना करती रहती थी। 
सांगितिक परिपक्वता की प्रतिमूर्ति
गिरिजा देवी जी ने शास्त्रीय संगीत में निहित अध्यात्मिक पक्ष को भी पकड़े रखा। उनके पति के निधन के पश्चात वह स्वरुप भी काफी नजर आया। वे बच्चों की तरह स्वभाव वाली और बेहद नजाकत और साफगोई से बातचीत करती थी। बाबुल मोरा नैहर छूट जाए की गंभीरता के साथ साथ होरी में निहित अल्हडपन का आनंद भी वे बहुत लेती थी। उनकी महफिल में सुनने वालों में दर्शक तो होते ही थे साथ ही हरेक कलाकार के साथ उनका इतना आत्मीय संबंध होता था कि वे कलाकार भी पहली पंक्ति में बैठकर गिरिजा जी का गाना जरुर सुनते थे। वे बेहतरीन कलाकार के साथ साथ बेहतरीन इंसान भी थी और निश्चित रुप से इतने गुणी व्यक्ति का चले जाना दु:ख देता है। गिरीजा देवी अपने आप में ऐसी शख्सियत थी जो अपने सांगितिक आभा मंडल के दैदिप्यमान ओज से सदा दमकती रहती थी और उनकी एक मुस्कुराहट ही दर्शको को प्रभावित कर जाती थी इतना पावित्र्य उनसे लोगो को मिलता रहता था। 

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